सोमवार, 7 नवंबर 2011

शमीमा की मुश्किलें पहाड़ की उचाईयों से होड़ कर रही है.

इन आँखों में सपने नहीं हैं .ये मासूम वीडियो गेम नहीं खेल सकती , चायनीज़ खिलौनों से भी नहीं  खेल पाई . 6-७ साल की उम्र में जब बच्चे स्कूल जाते हैं. उस उम्र में शमीमा ने स्लेट की जगह सूप और पेंसिल की जगह पर बीडी  में  तम्बाकू भरने वाली तीली  आ गयी  . शमीमा ने कभी स्कूल का मूह नहीं देखा शमीमा की तरह इस बस्ती  में कई बच्चे हैं. जिसकी कहानियाँ लगभग एक सी हैं. दिन भर  बीडी में तम्बाकू भरने के बाद बमुश्किल 20-30 रूपये  कम  पाती है. लाचार अब्बा   टीबी  वजह से अल्लाह को प्यारे हो गए. माँ भी दिनभर  खांसती रहती है. शमीमा की मुश्किलें पहाड़  की उचाईयों  से होड़ कर रही  है. जिंदगी  जब यातनागृह बन  जाती  है तो  आदमी  जीवत  भी हो जाता  है. पर मुश्किलें बहुत  ज्यादा  है और हौसला  नाकाफी है. ऐसा नहीं है की सरकार के पास योजनाओं की कमी नहीं जिनके लिए ये योजनायें बनती हैं उनकी  छत पर टीन भी नहीं चढ़ पाती चूल्हा आग की राह ताकता है. पेट रोटी के लिए जलता रहता है और बदन कपडे  के लिए तरसता है .शमीमा की आँखों में मैक डोनाल्ड या मिक्की-माउस के सपने नहीं आते वो अगले दिन ज्यादा से ज्यादा बीडी के बण्डल बनाने के सपने देखती है ताकि अम्मा के लिए टीबी की दवाई ला सके . कहने को तो सरकारी अस्पतालों में दवाइयां मुफ्त मिलती है. पर सचाई किसी से छुपी नहीं है. ऐसी ही कई शमीमा से मुझे रूबरू होने का मौका मिला. बिहार का एक प्रमुख शहर है भागलपुर . जिला  मुख्यालय से चंद किलोमीटर की दुरी पर है हाट-पुरैनी . मुस्लिम बहुल इलाका है , यहाँ अधिकांश परिवार बीडी बनाकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं. सबके दुःख एक से हैं. मुफलिसी इनके जीवन का  सच है .